आज के बालक ही कल के विश्व के, इक्कीसवीं सदी के नागरिक होंगे । उनका निर्माण उनकी परिपक्व आयु उपलब्ध होने पर नहीं, बाल्यकाल में ही संभव है, जब उनमें संस्कारों का समावेश किया जाना सबसे महत्त्वपूर्ण उपक्रम है | उन्हें बड़ा करना, उन्हें शिक्षा व विद्या, दोनों देना तथा संस्कारों से अनुप्राणित कर उनके समग्र विकास को गतिशील बनाना। सद्गुणों की संपत्ति ही वह निधि है, जो बालकों का सही निर्माण कर सकती है |
प्रसव के उपरांत भी बालक प्रायः माता से ही चिपका रहता है वही उसे स्तनपान कराती, सरदी-गरमी से बचाती, स्वच्छ रखती तथा अपने शरीर की विद्युतशक्ति से उसकी जीवनीशक्ति बढ़ाती है। इस स्थिति में भी उसे अपनी साज- सँभाल वैसी ही रखनी चाहिए, जैसी कि भ्रूण की परिवरीश के समय रखती थी। शिशु बड़े संवेदनशील होते हैं। वे माता की स्थिति का महत्त्वपूर्ण अंश सोखते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए माता को स्वयं अपने को अच्छी स्थिति में रखना चाहिए और पति समेत समूचे परिवार को यह ध्यान रखना चाहिए कि जन्मदात्री के माध्यम से बच्चे की शारीरिक और भावनात्मक आवश्यकताएँ पूरी होती रहें। कुपथ्य और आक्रोश बच्चे को प्रभावित करता है । उसकी इस प्रकार परिवरीश की जानी चाहिए, जिसमें न अतिवाद हो, न उपेक्षा। समय पर हर काम करने और कराने की आदत का यहीं से आरंभ होना चाहिए। कुशल माताएँ इन दिनों निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों के संबंध में समय रहते आवश्यक जानकारियाँ उपलब्ध कर लेती हैं और उन्हें कार्यान्वित भी करती हैं। बाल-विकास का यह दूसरा चरण है। बच्चा इस अवधि में प्रत्यक्ष रूप से तो चतुर नहीं होता, पर परोक्ष रूप में उसकी अदृश्य क्षमता असाधारण रूप से तीव्र होती है। इसलिए उसे अनजान समझकर समीपवर्ती वातावरण ऐसा नहीं बनने देना चाहिए, जो कोमल, किंतु संवेदनशील बालक पर बुरा प्रभाव डाले।
बालक के बढ़ने के साथ-साथ उसके आहार-विहार की, विनोद एवं खेल-कूद की ऐसी व्यवस्था रखनी चाहिए, जो उसे समग्र रूप में विकसित होने में सहायक सिद्ध हो। जब तक वह पाँच वर्ष का न हो जाए, तब तक नए गर्भधारण की तैयारी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा प्रथम बालक को मिलने वाला स्नेह-सहयोग टूटकर दो हिस्सों में बँट जाता है। गर्भिणी प्रायः अस्वस्थ रहने लगती है। बालक उस उदासी, कठिनाई से मन ही मन खिन्न रहने लगता है। इन दिनों की यह खिन्नता आगे चलकर उसमें कई कमियाँ उत्पन्न कर देती है। बच्चे के भविष्य के साथ खिलवाड़ करके ही नया बालक बुलाने की जल्दबाजी की जा सकती है । संस्कारवान माताएँ बच्चों के चरित्र की नींव बाल्यावस्था में डालती हैं, जबकि उन्हें आचरणहीन बनाने में भी प्रमुखतः हाथ उन्हीं का होता है ।
शिशु-अवस्था वस्तुतः कोरे कागज के समान है। इस कोरे कागज पर चाहे काली स्याही से लिख दें रंगीन कलाकृति ढाल दें। बालक वस्तुतः उस रूप में ढलता चला जाता है, जैसा वह बड़ों को, औरों को करते देखता है । माँ के साथ वह पिता, मित्रों, परिवेश, अपने शिक्षकों को देखता है व उनके आचरण के अनुरूप ही ढलता जाता है। परमपूज्य गुरुदेव इस नाजुक अवस्था का विशद् विवेचन कर मनोवैज्ञानिक आधार पर यह प्रतिपादन का प्रयास करते हैं कि यदि इस समय का सही उपयोग कर संस्कारों की गहरी छाप डाली जा सके तो जैसा हम चाहते हैं वैसी संतान प्राप्त कर सकते है |