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Gayatri Pariwar

आज हम बच्चों की शिक्षा और शारीरिक स्वास्थ की ओर तो ध्यान देते है लेकिन उनके बौद्धिक, मानसिक, भावनात्मक एवं नैतिक स्वास्थ की ओर से अनभिज्ञ है । जिसके कारण उच्चशिक्षा प्राप्त करके भी हमारे बच्चे संस्कारो के अभाव मे चिन्तन, चरित्र और व्यव्हार में उत्कृष्टता, शालीनता, आदर्शवादिता एवं दैवी गुणो से वांचित हो रहें है । जिसका परिणाम परिवार, समाज एवं राष्ट्र मे अनैतिकता, भ्रष्टाचार पापाचार के रुप में आ रहा है ।

संस्कारवान पीढी़ हेतु उच्च शिक्षा के साथ भावी पीढी़ के चिन्तन मे उत्कृष्टता, चरित्र मे आदर्शवादिता एवं व्यव्हार मे शालीनता तथा दैवी गुणों का विकास आवश्यक है | यह विचार, भावनाओं, आचार- विचार, आहार विहार, घर एवं बाहर के  वातावरण में सकारात्मक परिवर्तन से ही संभव है | गर्भ पूर्व तैयारी, गर्भावस्था, शिशु निर्माण (0-5) वर्ष, बाल निर्माण (6-12) वर्ष, किशोरावस्था (13-20) वर्ष  में पहुँचने तक उन्हे सुसंस्कृत एवं समुन्नत बनाने हेतु सम्पूर्ण मार्गदर्शन इस वेबसाइट में उपलब्ध है |

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युगपुरुष- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य | Yugpurush P. Shriram Sharma Acharya परम पूज्य गुरुदेव का संक्षिप्त जीवन दर्शन Shantikunjvideo Gayatri Pariwar.

Patron Founder

शान्तिकुञ्ज-गायत्री तीर्थ के प्रणेता युग निर्माण योजना के प्रवर्तक संस्थापक

वेदमूर्ती, तपोनिष्ठ, पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

हमारी मार्गदर्शक सत्ता

जिनकी संवेदना के प्रवाह से खड़ा हुआ यह अखिल विश्व गायत्री परिवार रूपी विराद संगठन, जिसमें सम्मिलित होकर देश-विदेश के करोड़ों स्वजन अपने जीवन को प्रखर एवं संवेदनशील बनाने में मंलग्न हैं। प्रस्तुत है. उनके (ऋषि युग्म के) जीवन कृत्या पर संक्षिप्त  झांकी......

* जन्म- आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् १९६८ (२० सितम्बर १९११) को पिता श्री पं. रूपकिशोर शर्मा एवं माता पू. दानकुवंरि के घर, ग्राम आँवलखेड़ा, आगरा (उत्तर प्रदेश) में, लगभग आठ वर्ष की आयु में पं. मदनमोहन मालवीय जी द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार व गायत्री मंत्र की दीक्षा सम्पन्न। निर्देशानुसार नित्य पाँच माला गायत्री मंत्र जप प्रारंभ ।

* वसंत पंचमी (१८ जनवरी १९२६) शरीर की आयु पन्द्रह वर्ष, ब्राह्ममुहूर्त में, उपासना के समय, पूजा की कोठरी में, प्रकाशपुंज का दर्शन हुआ, उसके मध्य में एक योगी का सूक्ष्म शरीर उभरा, सूक्ष्म इसलिये कि छवि तो दीख पड़ी, पर वह प्रकाशपुंज के मध्य अधर में लटकी हुई थी । उस छवि ने बताया- 'हम तीन जन्मों से आपका मार्गदर्शन कर रहे हैं ।'

आत्मा के तीन दिव्य जीवन का दर्शन कराने के बाद वर्तमान जीवन के लिए निर्देश दिये, जिसमें-सविता रूपी परमात्मा के रूप में अखण्ड ज्योति की स्थापना, अखण्ड दीपक के साक्षी में ही विधि-विधान के साथ विशेष पात्रता अर्जन हेतु गायत्री मंत्र की ६६ माला प्रतिदिन जप व ध्यान के साथ उपासना, जौ की रोटी और छाछ पर २४ वर्षों तक २४ महापुरश्चरणों को सम्पन्न करना साथ ही स्वतंत्रा आंदोलन में भूमिका निभाना, आर्ष ग्रंथों का अनुवाद मनुष्य में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण हेतु सतसाहित्य की रचना आदि की भावी रूपरेखा समझाई । पूज्यवर उन्हीं निर्देशों के अनुसार चलते रहे ।

१९३७ से अखण्ड ज्योति पत्रिका जो वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का प्रतिपादन करती है का संपादन बिना किसी विज्ञापनके आज तक प्रकाशित हो रही है । जिसकी ____ लाख सदस्यता है यह पत्रिका भारत की लगभग सभी भाषाओं में तथा प्रकाशित होती है । एक युगान्तरकारी साहित्य का प्रकाशन, गायत्री तपोभूमि, मथुरा (उ०प्र०) के माध्यम से, बीच-बीच में अपने गुरुदेव (स्वामी सर्वेश्वरानंदजी) के बुलावे पर तपस्या हेतु हिमालय प्रस्थान। यह क्रम प्रारंभ से १९८४ के मध्य चार बार चला ।

'व्यक्ति महान् बने, समाज महान् बने तथा सारी वसुधा महानता से ओतप्रोत हो, यह मिशन लेकर अखण्ड ज्योति जन्मी है । जब तक वह जलेगी, तब तक इसी प्रयत्न में लगी रहेगी।' १९६२ की अखण्ड ज्योति पत्रिका में उल्लिखित इस वाक्य को शान्तिकुञ्ज में अखण्ड दीप दर्शन के साथ व्यक्ति अनुभव करते हैं ।

अखण्ड ज्योति पत्रिका, मार्च १९६४ में परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है- ' एक ऐसा विश्वविद्यालय देश में होना ही चाहिए, जो सच्चे मनुष्य, बड़े मनुष्य, महान् मनुष्य, सर्वांगपूर्ण मनुष्य बनाने की आवश्यकता पूर्ण कर सके।' पूज्यवर का उक्त कथन अब शांतिकुंज एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय के रूप में फलित होता नजर आ रहा है।

१९५३, मथुरा में महर्षि दुर्वासा की तप:स्थली में गायत्री तपोभूमि निर्माण, गायत्री जयंती पर २४ महापुरश्चरणों के समापन के पश्चात् २४ दिन जल- उपवास कर गायत्री माता की प्राण-प्रतिष्ठा सम्पन्न, युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ,  पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी एवं परम वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा (आचार्यश्री की सहधर्मिणी) द्वारा समस्त भौतिक सम्पदाओं को समाज के लिये पूर्ण समर्पण, प्रथम दीक्षा वन्दनीया माताजी को एक सौ आठ कुण्डीय भव्य यज्ञ की साक्षी में दी ।

वसन्त पंचमी १९५५ से गायत्री तपोभूमि मथुरा में विशाल गायत्री महायज्ञ का शुभारंभ, साथ ही हिमालय की सूक्ष्म सत्ता के मार्गदर्शन में विभिन्न प्रकृति के लगभग १० महायज्ञ यथा-यजुर्वेद यज्ञ, ऋग्वेद यज्ञ, अथर्ववेद यज्ञ, सामवेद यज्ञ, रुद्र यज्ञ, विष्णु यज्ञ, पितृ यज्ञ आदि लगभग १५ माह में सम्पन्न किये, जिनकी पूर्णाहुति १९५६ में १०८ कुण्डों में, दस हजार गायत्री के नैष्ठिक उपासकों द्वारा १२५ करोड़ गायत्री मंत्र जप, १२५ लाख आहुतियाँ तथा १२५ हजार साधकों को ब्रह्मभोज ।

विशेष समय पर विशेष प्रयोग-उन्होंने दैवी सत्ता के निर्देशन पर सविता (सूर्य का प्राण) शक्ति को आत्मसात् कर महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिये १९५७ गायत्री जयंती से अपने मार्गदर्शन में लगभग एक लाख व्रतधारी धर्म सेवकों को राष्ट्र निर्माण में जुटाया, जिन्होंने गायत्री उपासना में रत रहकर ५२ दिन का उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन आदि कठोर साधनायें भी कीं, इस सामूहिक साधना की पूर्णाहुति-एक हजार कुण्डों की यज्ञशालाओं में कार्तिक सुदी द्वादशी से पूर्णिमा तक चार दिन में सम्पन्न हुई अर्थात् (२३ से २६ नवम्बर १९५८) जिसे ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान नाम दिया गया । जिसमें इन याज्ञिकों द्वारा २४० लाख आहुतियाँ दी गईं। (ज्ञातव्य है कि बाद में खगोलविदों द्वारा जुलाई ५७ से दिसम्बर १९५८ का समय शान्त-शौर्य वर्ष के रूप में घोषित किया गया) विशेष जानकारी हेतु पूज्यवर द्वारा रचित पुस्तक 'गायत्री का सूर्योपस्थान' पढ़ें। इतना विशाल यज्ञ महाभारत के उपरान्त दूसरा नहीं हुआ। उस महान् ऐतिहासिक यज्ञ के बाद लगभग ६००० गायत्री परिवार शाखाओं का गठन । इस अवधि तक चारों वेद, १८ पुराण, १०८ उपनिषद्, रामायण, सारे ब्राह्मणग्रंथ व सम्पूर्ण आर्षग्रन्थ, २४ स्मृतियाँ, छः दर्शन सहित का भाष्य सम्पन्न किया ।

गुरुपूर्णिमा १९६२ से युग निर्माण योजना (व्यक्ति, परिवार व समाज निर्माण) के कार्य का अपने तीस हजार मानस पुत्र और पुत्रियों को लेकर विधिवत् शुभारंभ।

२० जून १९७१-गायत्री तपोभूमि मथुरा से बृहद् आयोजनोपरान्त विदाई व परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी का अखण्ड दीपक सहित (विश्वामित्र व सप्तऋषियों की तपस्थली) शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार में आगमन ।

१ जुलाई १९७१ को परम पूज्य गुरुदेव जी का हिमालय अज्ञातवास के लिये प्रस्थान ।

इसी के तुरंत बाद पूज्यवर ने शान्तिकुञ्ज मे देवात्मा हिमालय के प्रतीक रूप को निर्मित किया, जिसमें सात प्रमुख तथा अन्यान्य वरिष्ठ ऋषियों की तपस्थली की स्थापना की । परम पूज्य गुरुदेव व परम वन्दनीया माताजी के संरक्षण में इस दिव्य स्थल शांतिकुंज के प्रसुप्त संस्कारों को जगाने के लिये देव कन्याओं द्वारा २४ लक्ष के २४ महापुरश्चरण कराये गये।

वर्ष १९७८ में वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के सशक्त प्रतिपादन के निमित्त ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना की ।

हिमालय से लौटने के बाद शान्तिकुञ्ज में प्राण प्रत्यावर्तन, चान्द्रायण, वानप्रस्थ, युगशिल्पी, जीवन विद्या के विभिन्न शिविर आयोजित किये। महिला जागृति के लिए देव कन्या प्रशिक्षण शिविर (१९७५ से ८० तक) चलाए । 1976 में 21वीं सदी नारी सदी की घोषणा की । प्रवासी भारतीयों में सांस्कृतिक चेतना के जागरण के लिए विदेश यात्राएँ कीं । देश-विदेश में लगभग ५००० गायत्री शक्तिपीठों की स्थापना का संकल्प कराया । अप्रैल १९८० से जनवरी १९८२ के मध्य स्वयं हजारों शक्तिपीठों में प्राण प्रतिष्ठा की ।

श्रीरामनवमी १९८४ से परम पूज्य गुरुदेव ने अपने सूक्ष्म शरीरधारी, हिमालय वासी मार्गदर्शक सत्ता के निर्देशन पर सूक्ष्मीकरण की साधना (आध्यात्मिक पुरुषार्थ की चरम पराकाष्ठा)-(१) वायुमण्डल के परिशोधन (२) वातावरण के परिष्कार (३) नवयुग के निर्माण (४) महाविनाश के निरस्त्रीकरण (५) देवमानवों के उत्पादन-अभिवर्द्धन हेतु प्रारंभ किया, जिसे सफलता पूर्वक वसन्त पंचमी १९८६ को समाप्त किया। उसी के पश्चात् महाकुंभ के समय १९८६ में ही अध्यात्म के ध्रुव केन्द्र (हिमालय) में निवास करने वाले ऋषियों की आत्मा का आवाहन करके, शांतिकुंज में प्राण-प्रतिष्ठा कर ऋषि परंपरा का पुनर्जीवन का अद्भुत और अनुपम कार्य सम्पन्न किया । इस प्रकार शांतिकुंज-ब्रह्मवर्चस - गायत्री तीर्थ एक प्रकार से भगीरथ, परशुराम, चरक, व्यास, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, वशिष्ठ, पातंजलि  सहित सभी ऋषिसत्ताओं का प्रतिनिधित्व एवं उनके कार्य को आगे बढ़ाने का करता है।

भगीरथ ऋषि परंपराज्ञान गंगा गायत्री का अवतरण आध्यात्मिक चेतना के संसर्ग से विश्वव्यापी योजना । परशुराम ऋषि परंपराअनीति अत्याचार के प्रतिकार हेतु विचारक्रान्ति अभियान

चरक ऋषि परंपरा अमृत तुल्य जड़ी बूटियों की खोज तथा एकऔषधीय चिकित्सा पद्धति जैसे अनुसंधानों का समावेश

व्यास ऋषि परंपरासम्पूर्ण आर्ष ग्रंथों का सुगम भाष्य, भटकती हुई विश्व मानवता के मार्गदर्शन हेतु लगभग 3200 पुस्तकों का सृजन 19 वा पुराण, प्रज्ञा पुराण की रचना एवं उसकी कथा द्वारा जनमानस का परिष्कार  

याज्ञवल्क्य ऋषि परंपरा यज्ञ विज्ञान, यज्ञोपैथी एवं यज्ञीय जीवन शैली को जन-जन तक पहुंचना

विश्वामित्र ऋषि परंपरा जन-जन के लिए गायत्री महाविद्या को सुलभ करना (युगनिर्माण हेतु)

वशिष्ठ ऋषि परंपराधर्म तंत्र द्वारा समय-समय पर राजतन्त्र का मार्गदर्शन

पातंजलि ऋषि परंपराअष्टांग योग समग्र स्वास्थ्य के इन आठ सिद्धांतों के पालन द्वारा स्वस्थ जीवन का प्रशिक्षण एवं अभ्यास कराना  

नारद ऋषि परंपरा युगसंगीत द्वारा जनमानस का शिक्षण, परिष्कार सत्परमर्श एवं परिव्राज द्वारा जनजागरण

वाल्मीकि परम्परा - संस्कार परम्परा के माध्यम से उत्कृश्ट व्यक्ति निर्माण कर समाज को आदर्ष व्यक्ति प्रदान करना.

बुद्ध परम्परा - धर्मचक्र प्रवर्तन के सज्जनों को संगठित करना, धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु षिक्षण-प्रषिक्षण की व्यवस्था.

सद्बुद्धि-सदाचरण के लिए वातावरण का निर्माण.  

शूत-शौनिक ऋषि परम्परा - स्थान-स्थान पर प्रज्ञा आयोजनों द्वारा धर्मचेतना का विस्तार.

शंकराचार्य परम्परा - स्थान-स्थान पर प्रज्ञासंस्थानों की स्थापना कर धर्मजागरण का विषाल तंत्र खड़ा करना

कणाद ऋषि परंपरा अध्याम और विज्ञान का समन्वय ब्रह्मवर्चस एवं देवसंस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना  

पिपलाद ऋषि परंपरा सात्विक संस्कारित संतुलित आहार

दधीचि ऋषि परंपरा अपनी समस्त साधन-संपदा, अपनी प्रतिभा, अपना सम्पूर्ण तप, अपना सम्पूर्ण जीवन विश्व मानव के कल्याण हेतु समर्पित किया   

वर्ष १९८४ से अब तक प्रायः ५० से अधिक शोध प्रबंध पूज्यवर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रस्तुत किये जा चुके हैं ।

1988 मे परम पू. गुरुदेव ने अपने एवं व. माताजी के शरीर छोड़ने पर अखंड दीप में समाहित होने की बात की घोषणा कर दी थी ।

1988 में गायत्री जयंती के पर्व पर उन्होंने सूक्ष्म शरीर से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने एवं स्थूल शरीर से अधिक अच्छी तरह से सम्पन्न होने का आश्वाशन दिया ।

१९८८ आश्विन नवरात्रि से पूज्यवर ने सूक्ष्म जगत् के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु दिव्य उपासना, मनुष्य में देवत्व के उदय, धरती पर स्वर्ग के अवतरण को संभव बनाने के लिये बारह वर्षीय सामूहिक महासाधना, सारे ऋषियों की शक्ति के साथ अंतिम ब्रह्मास्त्र के रूप में 'गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज' से प्रारंभ किया। तभी से परम पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपने मुखार बिन्दुओं से अखण्ड दीपक व शांतिकुंज को दिव्य साधना लोक के रूप में ध्यान का निर्देश देने लगे (कृपया ध्यान का कैसेट सुनें और ध्यान करें।)

इस सामूहिक महासाधना की महापूर्णाहुति दो चरणों में-प्रथम कार्तिक पूर्णिमा (१ से ४ नवम्बर ९५) पावन जन्मस्थली आँवलखेड़ा (आगरा) में १२५१ कुण्डीय यज्ञ से तथा द्वितीय क्रमशः विराट् विभूति ज्ञान यज्ञ (लाखों दीपों के माध्यम से) दिल्ली में और कार्तिक पूर्णिमा (७ से ११ नवम्बर २०००) को १५५१ कुण्डीय गायत्री एवं सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ के रूप में गंगा की गोद, हिमालय की छाया शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार में सम्पन्न हुई, जिसमें 'इक्कीसवीं सदी-उज्वल भविष्य' का शिलान्यास हुआ। (पुस्तक पढ़ें-युग संधि महापुरश्चरण प्रयोजन और प्रयास, प्रथम बार १९८८)

 १९८८ जनवरी की अपनी पूर्व घोषणा के अनुसार, २ जून १९९० गायत्री जयंती को हाड़-मांस की काया का बंधन हटाकर, सूक्ष्म व कारण शरीर से पूरी एक शताब्दी तक कार्य करने के लियेअखण्ड दीपक में समा गये (व्याप्तं येन चराचरम्), अपनी अंतिम पुस्तक 'परिवर्तन के महान क्षण' (जो बाद में प्रकाशित हुई के पृष्ठ-२९) में लिखते हैं-'शान्तिकुञ्ज हमारे प्रत्यक्ष शरीर के रूप में विद्यमान है, तो फिर उससे संबंधित लोगों को आवश्यक प्रेरणाएँ और प्रकाश किरणें क्यों न मिलती रहेंगी? जिसकी ऊर्जा और आभा से संसार भर के महत्त्वपूर्ण प्रयोजन गतिशील बने रहेंगे।' इसी पुस्तक के पृष्ठ ३० में वे लिखते हैं-'जो पुकारेगा, जो खोजेगा, उसे हम सामने ही खड़े और समर्थ सहयोग करते दीख पड़ेंगे।'

२७ जन. १९९१ में आचार्य श्री की स्मृति में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकिट जारी किया गया । १९९१ गायत्री जयंती को सविता शक्ति की प्रेरणा से परम वन्दनीया माताजी ने शांतिकुंज से शक्ति साधना वर्ष की घोषणा की। अखण्ड जप प्रधान कार्यक्रम पूरे भारत व विश्व भर में सम्पन्न हुये। परम पूज्य गुरुदेव-परम वन्दनीया माताजी के संरक्षण व ऋषियों के सहयोग से हजारों वर्षों के बाद भारत व विश्व में २७ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न हुये, जिनका उद्देश्य-विश्व को महाविनाश से बचाना एवं २१ वीं सदी उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला रखना था

From the point of view of great personalities

Devine message from Vedas